Posts

Showing posts from December, 2017

नटराज स्तुति

सत सृष्टि ताण्डव रचयिता नटराज राज नमो नम:। हे गुरू आद्य शंकर पिता नटराज राज नमो नम:॥ सत सृष्टि ताण्डव रचयिता नटराज राज नमो नम:॥ गम्भीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्माण्ड मा। नित होत नाद प्रचण्डना नटराज राज नमो नम:॥ सत सृष्टि ताण्डव ------------------ सिर ज्ञान गंगा चन्द्रमा चिदब्रह्म ज्योति ललाट मा। विषनाग माला कण्ठ मा नटराज राज नमो नम:॥ सत सृष्टि ताण्डव -------------------- तवशक्ति वामांगे स्थिता हे चन्द्रिका अपराजिता। चहुँ वेद गाये संहिता नटराज राज नमो नम:॥ सत सृष्टि ताण्डव रचयिता नटराज राज नमो नम:। हे आद्य गुरू शंकर पिता नटराज राज नमो नम:॥ सत सृष्टि ताण्डव----------------------

गोपियों द्वारा उद्धवजी को प्रेमयोग का महत्व बताना

ये तो प्रेम की बात है ऊधो बन्दगी तेरे बस की नहीं है। यहाँ सर दे के होते हैं  सौदे, आशिकी इतनी सस्ती नहीं है॥ ये तो प्रेम की बात की बात है ऊधो बन्दगी तेरे बस की नहीं है॥ ये तो प्रेम की बात है ऊधो प्रेम वालों ने कब वक्त पूछा उनकी पूजा में सुन ले ए ऊधो। यहाँ दम दम में होती है पूजा सर झुकाने की फुर्सत नहीं है॥ ये तो प्रेम की बात------ जो असल में है मस्ती में है डूबे उन्हे क्या परवाह जिन्दगी की। जो उतरती है  चढ़ती है मस्ती वो हकीकत में मस्ती नहीं है॥ ये तो प्रेम की बात ----- जिसकी नजरों में हैं श्याम प्यारे वो तो रहते हैं  जग से न्यारे । जिसकी नजरों में मोहन समाये वो नजर फिर तरसती नहीं है॥ ये तो प्रेम की बात------ ये तो प्रेम की बात है ऊधो

चार प्रकार की वाणी

वाणी चार प्रकार की होती है : 1. परा वाणी 2. पश्यन्ती वाणी  3. मध्यमा वाणी 4. वैखरी वाणी

भारतीय दर्शन (Indian Philosophy)

दर्शन दो प्रकार के हैं :1. नास्तिक दर्शन  2.आस्तिक दर्शन  नास्तिक दर्शन तीन प्रकार के हैं : 1. चार्वाक दर्शन (लोकायत दर्शन) (महर्षि चार्वाक) 2. बौद्ध दर्शन (वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार और माध्यमिक (शून्यवाद) 3. जैन दर्शन (स्यादवाद) आस्तिक दर्शन छ: प्रकार के हैं जिन्हें षड् दर्शन कहा जाता है: 1. न्याय दर्शन (महर्षि गौतम) 2. वैशेषिक दर्शन (महर्षि कणाद) 3. साँख्य दर्शन (महर्षि कपिल) 4. योग दर्शन (महर्षि पतंजलि) 5. मीमांसा दर्शन (कर्म मीमांसा) (महर्षि जैमिनी) 6. वेदान्त दर्शन (ब्रह्म सूत्र) (महर्षि बादरायण वेदव्यास)

सनातन धर्म के अद्वैत वेदान्त दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ एवं स्तोत्र

1. उपदेश साहस्री  2. आत्म बोध  3. तत्त्व बोध 4.  पंचीकरणम्   5. अपरोक्षानुभूति  6. विवेक चूड़ामणि  7. महर्षि उपवर्ष कृत उपवर्ष वृत्ति 8. ब्रह्मसूत्र पर आदि शंकराचार्य कृत शारीरक भाष्य 9. अष्टावक्र गीता 10. अवधूत गीता 11. विष्णु सहस्रनाम पर शांकर भाष्य 12. ईशादि 11 उपनिषदों पर शांकर भाष्य 13. श्रीमद भगवद् गीता पर शांकर भाष्य 14. वाक्य वृत्ति 15. दृग् दृश्य विवेक  16.परा पूजा     17. हस्तामलक स्तोत्र 18. अमरु शतकम् 19. योग तारावली  20. निर्वाण षट्कम्  21. साधना पंचकम्  22. स्पन्द लोक 23. दक्षिणामूर्ति स्तोत्र 24. सौन्दर्य लहरी 25. आनन्द लहरी  26. मनीषा पंचकम् 27. कैवल्याष्टकम्  28. अद्वैत सिद्धि: 29. सुरेश्वराचार्य कृत पंचपादिका

वेदान्त के चार महावाक्य

1. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऋग्वेद का ऐतरेय उपनिषद्  के अध्याय 3 खण्ड 1 मन्त्र 3)----- Consciousness is Brahman) 2. अहम् ब्रह्मास्मि (यजुर्वेद का वृहदारण्यक उपनिषद् के अध्याय 1 ब्राह्मण 4 मन्त्र 10)------ I am brahma 3. तत्त्वमसि (सामवेद का छान्दोग्य उपनिषद् के अध्याय 6 खण्ड 8 मन्त्र 7)-------Thou art That 4. अयमात्मा ब्रह्म (अथर्ववेद का माण्डूक्य उपनिषद् के प्रथम खण्ड 1-2)------This self is Brahma

व्यवसायात्मिका बुद्धि और निश्चयात्मिका बुद्धि(ऋतम्भरा प्रज्ञा)

प्रज्ञा(बुद्धि) दो प्रकार की होती है: 1. व्यवसायात्मिका बुद्धि 2. निश्चयात्मिका बुद्धि(ऋतम्भरा प्रज्ञा) भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीभगवद् गीता के द्वितीय अध्याय सांख्य योग में श्लोक न. 41 से 44 तक ''व्यवसायात्मिका बुद्धि'' के बारे में  विस्तार से वर्णन किया है॥ भगवान् ने गीता के द्वितीय अध्याय सांख्य योग में श्लोक न.55 से 59 तक, श्लोक न.61 तथा श्लोक न.68 से 72 तक ''निश्चयात्मिका बुद्धि(स्थितप्रज्ञ)'' के बारे में विस्तार से वर्णन किया है॥  व्यवसायात्मिका बुद्धि का लक्षण: व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोSव्यवसायिनाम्॥ (गीता) यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:। वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ (गीता) कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। क्रियाविशेषबहुलां भौगैश्वर्यगतिं प्रति॥ (गीता) भौगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥ (गीता) भगवान् श्री मनुष्य में तर्क वितर्क करने वाली बुद्धि को व्यवसायात्मिका बुद्धि कहते हैं तर्क वितर्क करके बुद्धि व्यवसाय करती है उनकी बुद्धि

अपरा विद्या और परा विद्या(अध्यात्म विद्या) (Physics and Meta Physics)

विद्या दो प्रकार की होती है: 1.अपरा विद्या(Physics) 2. परा विद्या(Meta Physics) बुद्धि(प्रज्ञा) भी दो प्रकार की होती है: 1. व्यवसायात्मिका बुद्धि 2. निश्चयात्मिका बुद्धि(स्थितप्रज्ञ, ऋतम्भरा प्रज्ञा) अपरा विद्या(Physics): अपरा विद्या के द्वारा अपरा प्रकृति(Nature) का पूर्ण रहस्यमय ज्ञान प्राप्त होता है। अपरा प्रकृति को ही भौतिक प्रकृति(Material Nature) कहा जाता है। अपरा विद्या के लिये ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं, जैसे चारों वेद, छ: वेदांग, पुराण, दर्शन आदि ॥अपरा विद्या(Physics) के द्वारा भौतिकवाद(Materialism) का पूरा ज्ञान मिलता है।  भौतिकवाद का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना अध्यात्म(Spirituality) को जानना असम्भव है। अपरा विद्या(Physics) का सम्पूर्ण ज्ञान  प्राप्त किये बिना परा विद्या(अध्यात्म विद्या) (Meta Physics) को जानना असम्भव है॥ प्रकृति(Nature) का सम्पूर्ण रहस्य जाने बिना परा प्रकृति(Superior Nature) और परब्रह्म को जानना असम्भव है। अपरा विद्या(Physics) में अपरा प्रकृति(Nature) का वर्णन, बिन्दु विस्फोट सिद्धांत(Big Bang Theory), कृष्ण विवर सिद्धान्त(Black Hole Theory), गुरुत्वाक

अपरा प्रकृति और परा मूल प्रकृति(Nature and Superior Nature)

प्रकृति दो प्रकार की होती है(There are two types of Nature): 1. अपरा प्रकृति(Nature) 2. प्रधान मूल प्रकृति(Superior Nature) श्रीमद भगवद् गीता और दुर्गा सप्तशती में अपरा प्रकृति और प्रधान मूल प्रकृति का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध एवं ब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृति खण्ड में भी परा प्रकृति और अपरा प्रकृति का विस्तार से वर्णन है। देवी भागवत पुराण एवं ब्रह्मवैवर्त महापुराण दोनों पुराणों में 18,000 श्लोक है॥ श्रीमद भगवद् गीता और दुर्गा सप्तशती दोनों ग्रन्थों में 700 श्लोक हैं॥ अपरा प्रकृति (Nature) का वर्णन: भूमिरापोSनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकारं इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ (गीता) एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया। आराधिता वशीकुर्यात् पूजा कर्तुश्चराचरम्॥(दुर्गा सप्तशती या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद भगवद् गीता के सप्तम अध्याय ज्ञानविज्ञान योग में श्लोक न.4 में अपनी अष्टधा प्रकृति (Nature) का वर्णन किया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पाँच महाभूत तथा मन, बुद्

अपरा विद्या(Physics) के द्वारा अपरा प्रकृति(Nature) के रहस्य का ज्ञान

भूमिरापोsनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकारं इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ (गीता) क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥ (रामचरित मानस) एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया। आराधिता वशीकुर्यात् पूजा कर्तुश्चराचरम्॥ (दुर्गा सप्तशती) या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥ अर्थ: भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद भगवद् गीता के सप्तम अध्याय ज्ञान विज्ञान योग के श्लोक न.4 में अपनी अपरा अष्टधा प्रकृति(Nature) का वर्णन किया है।  पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार ये ही आठ प्रकार से विभक्त भगवान् की भिन्ना अपरा प्रकृति है॥ प्रकृति के तीन गुण, महत्तत्व(बुद्धि), त्रिविध अहंकार, मन, पंच महाभूत के द्वारा इस स्थूल ब्रह्माण्ड और स्थूल भौतिक शरीर की सृष्टि हुई है। दुर्गा सप्तशती के वैकृतिक रहस्य में अपरा प्रकृति का वर्णन है: यह अपरा प्रकृति अव्यक्त दुस्तर वैष्णवी माया है, प्रकृति त्रिगुणात्मिका है, प्रकृति योनि स्वरूपा है। यह अपरा प्रकृति ईश्वर की शक्ति है, यह अपरा प्रकृति परिवर्तनशील है। सत्त्व, रज, तम ये प्रकृति

आत्मा का अमरत्व(सांख्य योग)

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो नित्यः शाश्वतोSयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || न – कभी नहीं; जायते – जन्मता है; म्रियते – मरता है; कदाचित् – कभी भी (भूत, वर्तमान या भविष्य); न – कभी नहीं; अयम् – यह; भूत्वा – होकर; भविता – होने वाला; वा – अथवा; न – नहीं; भूयः – अथवा, पुनः होने वाला है; अजः – अजन्मा; नित्य – नित्य; शाश्र्वत – स्थायी; अयम् – यह; पुराणः – सबसे प्राचीन; न – नहीं; हन्यते – मारा जाता है; हन्यमाने – मारा जाकर; शरीरे – शरीर में; अर्थ: आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा | वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता | तात्पर्यः गुणात्मक दृष्टि से, परमात्मा का अंश आत्मा परमात्मा से अभिन्न है | वह शरीर की भाँति विकारी नहीं है | कभी-कभी आत्मा को स्थायी या कूटस्थ कहा जाता है | शरीर में छह प्रकार के रूपान्तर होते हैं | वह माता के गर्भ से जन्म लेता है, कुछ काल तक रहता है, बढ़ता है, कुछ परिणाम उत्पन्न करता है, धीरे-धीरे क्षीण होता है और अन्त म