व्यवसायात्मिका बुद्धि और निश्चयात्मिका बुद्धि(ऋतम्भरा प्रज्ञा)
प्रज्ञा(बुद्धि) दो प्रकार की होती है: 1. व्यवसायात्मिका बुद्धि 2. निश्चयात्मिका बुद्धि(ऋतम्भरा प्रज्ञा)
भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीभगवद् गीता के द्वितीय अध्याय सांख्य योग में श्लोक न. 41 से 44 तक ''व्यवसायात्मिका बुद्धि'' के बारे में विस्तार से वर्णन किया है॥ भगवान् ने गीता के द्वितीय अध्याय सांख्य योग में श्लोक न.55 से 59 तक, श्लोक न.61 तथा श्लोक न.68 से 72 तक ''निश्चयात्मिका बुद्धि(स्थितप्रज्ञ)'' के बारे में विस्तार से वर्णन किया है॥
व्यवसायात्मिका बुद्धि का लक्षण:
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोSव्यवसायिनाम्॥ (गीता)
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ (गीता)
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भौगैश्वर्यगतिं प्रति॥ (गीता)
भौगैश्वर्यप्रसक्तानाम् तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥ (गीता)
भगवान् श्री मनुष्य में तर्क वितर्क करने वाली बुद्धि को व्यवसायात्मिका बुद्धि कहते हैं तर्क वितर्क करके बुद्धि व्यवसाय करती है उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है। सकाम कर्मी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म, शक्ति आदि के लिये विविध सकाम कर्म करने की इच्छा करते हैं। इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय भोग विलास जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि स्वर्ग के सुख से बढ़कर कुछ नहीं है। व्यवसायी बुद्धि के लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से मोहग्रस्त हो जाते हैं। इसीलिये व्यवसायात्मिका बुद्धि वाले लोग समाधि को प्राप्त नहीं कर पाते, व्यवसायी बुद्धि के लोग भगवान् के स्वरूप में समाधि नहीं लगा पाते, इनकी बुद्धि भगवान की भक्ति में दृढ़ निश्चय नहीं कर पाती॥
निश्चयात्मिका बुद्धि (स्थित प्रज्ञ) का लक्षण:
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ (गीता)
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतराग भयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ (गीता)
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वैष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता)
यदा संहरते चायं कूर्मोंSगानीव सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (गीता)
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता)
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता)
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने :॥(गीता)
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठम्
समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ (गीता)
विहाय कामान्य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति ॥ (गीता)
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेSपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥(गीता)
गलत व्याख्या की गई हैं
ReplyDeleteगलत व्याख्या की गई हैं
ReplyDeleteCopy paste kyo kerte ho koi galat smj jaega tho paap tumhe hi lagega
ReplyDelete🤦🤦🤦 focus on one thing
ReplyDeleteक्या कुछ भी बताते हो जी