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Showing posts from July, 2018

गौड़पाद कारिका

The Brahma-Sutra, ishaadi 11 Upanishads and Srimad Bhagawad gita are called 'Prasthana-traya' of Vedanta Darshan on which almost every great Acharya has commented. The Mandukya-Karika or the Gaudpada-Karika also known as the Agama-Shastra is the first available systematic treatise on Advaita Vedanta. There can be no doubt that Gaudpada' s philosophy is essentially based on the Upanishads, particularly on the Mandukya,  the Brhadaranyaka, and the Chhandogya. Probably he has also drawn upon the Brahma-Sutra and the Srimad Bhagawad Gita. There can also be no doubt that Gaudpada is much influenced by Mahayana Buddhism--by Sunyavada and Vijnnanvada. In fact it can be correctly stated that Gaudpada represents the best that is in Nagarjuna and Vasubandhu. Tradition says that Gaudpada was the teacher of Govindpada who was the teacher of Adi Shankaracharya. Adi Shankaracharya himself most respectfully salutes Gaudpada as his 'grand-teacher who is the respected (teacher) of his r

जीव और ब्रह्म का एकत्व

'' ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैवनापर: '' Brahman(ब्रह्म) is the only reality; the world(जगत) is ultimately false; and the individual soul(जीव) is non-different from Brahman(ब्रह्म). Brahman and Atman or the supreme self are synonymous terms. The world is creation of Maya. The individual selves on account of their inherent Avidya imagine themselves as different from Brahman and mistake Brahman as this world of plurality, even as we mistake a rope as a snake. Avidya vanishes at the dawn of knowledge--the supra-relational direct and intuitive knowledge of the non-dual self which means liberation.

माया

The world is a creation of Maya. The words Maya, Avidya, Ajnana, Adhyaya, Adhyaropa, Anirvachniya, Vivarta, Bhranti, Bhrama, Nama-rupa, Avyakta, Aksara, Bijashakti, Mula-Prakrti etc. are recknessly used in Vedanta as very nearly synonymous. The general trend of the Advaitins

बौद्ध धर्म दर्शन नास्तिक एवं अनात्मवादी दर्शन

बौद्ध दर्शन नास्तिक दर्शन है। बौद्ध धर्म ईश्वर और आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता है। बौद्ध दर्शन अनात्मवादी दर्शन है। बौद्ध धर्म वेद को प्रमाण नहीं मानता है॥ भगवान गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्यों (four noble truths) का निरूपण किया। तथागत बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के लिये वेद को प्रमाण नहीं माना। गौतम बुद्ध ने कहा : ज्ञान, परं शान्ति एवं निर्वाण(liberation) प्राप्त करने के लिये वेद का अध्ययन और  वैदिक कर्मकाण्ड, यज्ञ-यागादि करना, ईश्वर की भक्ति करना जरूरी नहीं है।  दु:खों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये भगवान बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग (eight fold paths) का निरूपण किया। भगवान बुद्ध ने कहा: मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य दु:खों से मुक्ति, परम शान्ति और निर्वाण प्राप्त करना है॥ बौद्ध धर्म में तीन सम्प्रदाय हैं : १ .हीनयान २. महायान ३. वज्रयान। बौद्ध धर्म में तीन प्रकार के धर्म ग्रन्थ हैं जिसे '' त्रिपिटक '' कहा जाता है। त्रिपिटक साहित्य में तीन पिटक हैं--- 1. अभिधम्म पिटक २. विनय पिटक ३.सुत्त पिटक। जातक कथाओं में बोधिसत्व की कथा एवं बोधिसत्त्व की पूर्व जन्म की कथाओं का वर्णन ह

यौगिक धारणा द्वारा अन्तिम समय में शरीर त्याग की विधि

सर्वद्वाराणि   संयम्य   मनो   हृदि   निरुध्य च। मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ ओमित्येकाक्षरं    ब्रह्म     व्याहरन्मामनुस्मरन्। य:  प्रयाति  त्यजन्देहं  स  याति  परमां गतिम्॥ योगी मनुष्य अन्त काल में यौगिक धारणा के द्वारा शरीर के नौ द्वारों का संयम करके मन की गति और हृदय गति का निरोध ( control of heart beat and mind) करके प्राणायाम की विधि से अपने प्राणवायु को रोककर दशम द्वार मूर्धा (ब्रह्मरंध्र) में स्थापित करता है। उसके  बाद अक्षर ब्रह्म ॐ का उच्चारण- ब्रह्म चिन्तन करते हुए दशम द्वार ब्रह्मरंध्र से प्राण के साथ-साथ शरीर का त्याग करता है और परा गति (ब्रह्म सायुज्य) (liberation) को प्राप्त करता है॥

विवाह अग्नि परिग्रह संस्कार

स्वायम्भुव मनु ने मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में १५ वां संस्कार  विवाह अग्निपरिग्रह-संस्कार का वर्णन किया है: वैवाहिकेSग्नौ  कुर्वीत  गृह्यं    कर्म  यथाविधि। पञ्चयज्ञविधानं  च   पक्तिं   चान्वाहिकीं  गृही॥ वैश्वदेवस्य   सिद्धस्य    गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्य: कुर्याद् देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥ अर्थात् विवाह-संस्कार में लाजाहोम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं वह अग्नि योजक, आवसथ्याग्नि, गृह्याग्नि, स्मार्ताग्नि, विवाहाग्नि तथा औपासनाग्नि नाम से कही जाती है। विवाह के बाद जब वर-वधू (बेहुला-बेहुली) अपने घर आने लगते हैं तब विवाह-मण्डप में स्थापित विवाह अग्नि को अपने घर में लाकर यथाविधि स्थापित करके उस अग्नि में प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा अनुसार प्रात: काल-सायं काल होम   करने का विधान है। गृहस्थ के लिये पञ्चमहायज्ञ आदि पाकयज्ञ-सम्बन्धी जो नित्य कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं, अत: प्रत्येक गृहस्थी को चाहिये कि वह विवाह के समय लायी गयी योजक अग्नि तथा घर में प्रतिष्ठित अग्नि में विधिपूर्वक नित्य होम (प्रात:-सायं हवन आदि कर्म), पञ्चमहायज्ञ, बलिवैश्वदेव (पञ्चबलि) और प्

यज्ञोपवीत (जनेऊ) निर्माण विधि

महर्षि कात्यायन ने '' कात्यायन परिशिष्ट'' में यज्ञोपवीत(जनेऊ) निर्माण की विधि का वर्णन किया है: अथातो यज्ञोपवीत निर्माण प्रकारं वक्ष्याम:। ग्रामाद् बहिस्तीर्थे गोष्ठे वा गत्वाSनध्याय वर्जित पूर्वाह्णे कृत संध्या अष्टोत्तरशतं सहस्रं वा यथाशक्ति गायत्रीं जपित्वा ब्राह्मणेन तत्कन्यया सुभगया धर्मचारिण्या वा कृतं सूत्रमादाय भूरिति प्रथमां षण्णवतीं मिनोति, भुवरिति द्वितीयां स्वरिति तृतीयां मीत्वा, पृथक् पलाशपत्रे संस्थाप्य, '' आपो हि ष्ठा '' इति तिसृभि:,  शं नो देवीत्यनेन सावित्र्या चाभिषिच्य वामहस्ते कृत्वा त्रि: संताड्य व्याहृतिभिस्त्रिवणितं कृत्वा, पुनस्ताभिस्त्रिगुणितं कृत्वा पुनस्त्रिवृतं कृत्वा प्रणवेन ग्रन्थिं कृत्वा ॐकारं अग्निं नागान् सोमं पितृृृन् प्रजापतिं वायुं सूर्यं विश्वान् देवान् नवतन्तुषु क्रमेण विन्यस्य सम्पूज्येत्। देवस्येत्युपवीतमादाय, '' उद्वयं तमसस्परि '' इत्यादित्याय दर्शयित्वा यज्ञोपवीतमित्यनेन धारयेदित्याह भगवान्कात्यायन:॥

त्रेताग्नि संग्रह संस्कार

व्यासस्मृति में कहा गया है: ''स्मार्तं वैवाहिके वह्नौ श्रौतं  वैतानिकाग्निषु।''  व्यासस्मृति और विवाहाग्निसंस्कार में बताया गया है कि गृहस्थ के स्मार्तकर्मों का सम्पादन विवाहाग्नि में सम्पादित होता है और श्रौतकर्मों का सम्पादन त्रेताग्नि  में होता है। विवाहाग्नि(गृह्याग्नि) के अलावा तीन अग्नियाँ और होती हैं जो आहवनीय, गार्हपत्य तथा दक्षिणाग्नि नाम से कही जाती हैं, इन तीनों अग्नियों का जो सामूहिक नाम है, उसे '' त्रेताग्नि, श्रौताग्नि अथवा वैतानाग्नि ''  कहा जाता है। इन तीन अग्नियों की स्थापना, उनकी प्रतिष्ठा, रक्षा तथा उनका हवन कर्म '' त्रेताग्निसंग्रह संस्कार ''  कहलाता है। मुख्य रूप से  वैदिक यज्ञों के अनेक भेदों का समाहार तीन प्रकार की यज्ञसंस्थाओं '' १. पाकयज्ञसंस्था   २. हविर्यज्ञसंस्था ३. सोमयज्ञसंस्था '' के अन्तर्गत हो जाता है। पाकयज्ञ सम्बन्धी यज्ञों का अनुष्ठान विवाहाग्नि में होता है परन्तु '' हविर्यज्ञ संस्था तथा सोमयज्ञ संस्था के कर्म त्रेताग्नि में सम्पन्न होते हैं। ''  हविर्यज्ञसंस्था के सात प्र

१६ संस्कारों के नाम

व्यासस्मृति में १६ संस्कारों  के नाम इस प्रकार प्राप्त होते हैं: गर्भाधानं   पुंसवनं   सीमन्तो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेSन्नाशनं   वपनक्रिया॥ कर्णवेधो   व्रतादेशो  वेदारम्भक्रियाविधि:। केशान्त:  स्नानमुद्वाहो  विवाहाग्निपरिग्रह॥ त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। १. गर्भाधान २. पुंसवन ३. सीमन्तोन्नयन ४. जातकर्म  ५.नामकरण(न्वारन) ६.निष्क्रमण ७.अन्नप्राशन(पास्नी) ८. चूड़ाकरण(छेवर) ९. कर्णवेध(कान छेड्ने)                १०. उपनयन(व्रतबन्ध) ११. वेदारम्भ १२. केशान्त १३. समावर्तन १४.विवाह(बे)                                       १५.(क) विवाहाग्निपरिग्रह (ख) त्रेताग्निसंग्रह                    १६. अन्त्येष्टि (दाह संस्कार)

विवाह अग्नि परिग्रह संस्कार

स्वायम्भुव मनु ने मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में १५ वां संस्कार  विवाह अग्निपरिग्रह-संस्कार का वर्णन किया है: वैवाहिकेSग्नौ  कुर्वीत  गृह्यं    कर्म  यथाविधि। पञ्चयज्ञविधानं  च   पक्तिं   चान्वाहिकीं  गृही॥ वैश्वदेवस्य   सिद्धस्य    गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्य: कुर्याद् देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥ अर्थात् विवाह-संस्कार में लाजाहोम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं वह अग्नि योजक, आवसथ्याग्नि, गृह्याग्नि, स्मार्ताग्नि, विवाहाग्नि तथा औपासनाग्नि नाम से कही जाती है। विवाह के बाद जब वर-वधू (बेहुला-बेहुली) अपने घर आने लगते हैं तब विवाह-मण्डप में स्थापित विवाह अग्नि को अपने घर में लाकर यथाविधि स्थापित करके उस अग्नि में प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा अनुसार प्रात: काल-सायं काल होम   करने का विधान है। गृहस्थ के लिये पञ्चमहायज्ञ आदि पाकयज्ञ-सम्बन्धी जो नित्य कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं, अत: प्रत्येक गृहस्थी को चाहिये कि वह विवाह के समय लायी गयी योजक अग्नि तथा घर में प्रतिष्ठित अग्नि में विधिपूर्वक नित्य होम (प्रात:-सायं हवन आदि कर्म), पञ्चमहायज्ञ, बलिवैश्वदेव (पञ्चबलि) और प्

संस्कार शब्द का अर्थ

' संस्कार ' शब्द 'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'कृञ्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय लगाने पर 'संपरिभ्यां करोतौ भूषणे' इस पाणिनीय सूत्र से भूषण अर्थ में 'सुट्' करने पर सिद्ध होता है। इसका अर्थ है----संस्करण, परिष्करण, विमलीकरण तथा विशुद्धिकरण आदि। संस्कारदीपक में संस्कार को परिभाषित करते हुए कहा गया है----'' तत्र संस्कारो नाम आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योSतिशयविशेष: गर्भाधानादौ संस्कारपदं लाक्षणिकम्॥''  अर्थात् आत्मा या शरीर के विहित क्रिया के द्वारा अतिशय आधान को '' संस्कार '' कहते हैं। गर्भाधान आदि मे संस्कार पद  का प्रयोग लाक्षणिक है॥ काशिकावृत्ति के अनुसार उत्कर्ष के आधान को संस्कार कहते हैं-----'उत्कर्षाधानं संस्कार:' । संस्कार प्रकाश के अनुसार अतिशय गुण को संस्कार कहा जाता है----'अतिशय विशेष: संस्कार:' । मेदिनीकोश के अनुसार संस्कार शब्द का अर्थ है---प्रतियत्न, अनुभव तथा मानस कर्म। न्याय शास्त्र के मतानुसार गुणविशेष का नाम संस्कार है  जो तीन प्रकार का होता है---वेगाख्य संस्कार, स्थिति स्थापक

आधुनिक काल में होम(यज्ञ) करने की मुख्य तीन विधियां

आधुनिक समय में हमारे वैदिक धर्म में होम (हवन) करने की तीन पद्धतियां प्रचलित है: 1. कुशकण्डिका विधि (पारस्कर गृह्य सूत्र एवं  शतपथ ब्राह्मण में  वर्णित) 2. अग्निस्थापना विधि (नेपाली होम विधि) 3. हवन पद्धति (श्री वैष्णव सम्प्रदाय विधि) 1. सनातन वैदिक धर्म में श्रौत-स्मार्त हवन करने के लिये सबसे ज्यादा प्रचलित एवं पुरानी विधि '' कुशकण्डिका विधि ''  है। सम्पूर्ण भारत देश में एक दिन के सामान्य होम का तथा गर्भाधान आदि 16 संस्कार स्मार्त यज्ञों का सम्पादन  पारस्कर गृह्यसूत्र में वर्णित विधि एवं कुशकण्डिका विधि से किया जाता है। वैदिक कर्मकाण्ड के सबसे प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थ '' पारस्कर गृह्य सूत्र '' में कुशकण्डिका विधि तथा गर्भाधान,  नामकरण आदि 16 स्मार्त संस्कार यज्ञों का सम्पादन  तथा '' शतपथ ब्राह्मण '' में अधिक दिनों-महीनों तक चलने वाले विशाल श्रौत यज्ञों-महायज्ञों को सम्पादन करने की विधि का विस्तार से वर्णन है। सनातन वैदिक धर्म में भगवान गणेशजी की स्थापना- अग्रपूजा और ईशान कोण में रूद्र कलश पर अहंकार के अधिष्ठाता भगवान शिवजी की स्थापना

पंचांग निर्माण की तीन पद्धतियां

आधुनिक समय में पंचांग गणित की  तीन पद्धतियां प्रचलित हैं: 1. सूर्य सिद्धान्त  2. ग्रह लाघवम् 3. दृग्गणित (केतकी चित्रापक्षीय)। 1. नेपाल के सारे पंचांग '' सूर्य सिद्धान्त'' नामक पुस्तक  में दिये गये ज्योतिषीय गणित के अनुसार गणित करके बनाये जाते हैं। सिद्धान्त ज्योतिष का मुख्य शास्त्रीय ग्रन्थ '' सूर्य सिद्धान्त''  है। सूर्य सिद्धान्त का प्रतिपादन भगवान सूर्य ने किया था। भगवान सूर्य ने असुर शिल्पी मय दानव को सिद्धान्त ज्योतिष का ज्ञान प्रदान किया था॥ 2. वाराणसी(काशी) के सारे पंचांग  '' ग्रह लाघव''  नामक पुस्तक में दिये गये ज्योतिषीय गणित के अनुसार गणित करके बनाये जाते हैं। '' ग्रह लाघव''  भी सिद्धान्त ज्योतिष का मुख्य शास्त्रीय ग्रन्थ है॥ इसमें सूर्य-चन्द्रमा आदि ग्रहों के उदयकाल एवं अस्तकाल, बृहस्पति-शुक्र के उदय-अस्त एवं बाल्यत्व-वृद्धत्व दोष आदि में बहुत संस्कार करना पड़ता है॥ 3. दिल्ली के सारे पंचांग '' दृग्गणित (केतकी चित्रापक्षीय)'' के अनुसार ज्योतिषीय  गणित करके बनाये जाते हैं। दृग्गणित का अर्थ है 

ज्योतिष शास्त्र की शास्त्रीय पुस्तकें

1. लग्न दर्पण(नेपाली भाषा मा) 2.दधि दर्पण (नेपाली भाषा मा) 3.फल दीपिका (मन्त्रेश्वर कृत) 4.लीलावती (भास्कराचार्य कृत) 5.वृहज्जातक (वराहमिहिर कृत) 6.लघु पाराशरी 7.बृहत पाराशर होरा शास्त्र(महर्षि पाराशर कृत) 8.आर्यभट्टियम (आर्य भट्ट कृत) 9.सूर्य सिद्धान्त (आर्य भट्ट कृत) 10.सिद्धान्त शिरोमणि(भास्कराचार्य कृत) 11.ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त (आचार्य ब्रह्म गुप्त कृत ) 12.जातक पारिजात  13. जातक तत्त्वम् 14.ताजिक नीलकण्ठी (आचार्य नीलकण्ठ कृत) 15.आयुर्निर्णय  16. सारावली 17. जैमिनी सूत्रम् (महर्षि जैमिनी कृत) 18. षट्पंचाशिका  19. प्रश्न मार्ग 20. वाराही संहिता(वृहत संहिता) (वराहमिहिर कृत) 21. नारद संहिता (देवर्षि नारद कृत) 22. पञ्चसिद्धान्तिका (वराहमिहिर कृत) 23. भृगु संहिता (ब्रह्मर्षि भृगु कृत) 24. मध्य पाराशरी 25.जातक निर्णय 26.दशा फ़ल निर्णय

यज्ञोपवीत (जनेऊ) के नौ तन्तुओं के नौ देवता

'' सामवेदीय छन्दोग परिशिष्ट '' में यज्ञोपवीत(जनेऊ) के नौ तन्तुओं में स्थित नौ देवताओं के नाम इस तरह बताये गये हैं: ॐकारोSग्निश्च नागश्च सोम: पितृप्रजापती। वायु:  सूर्यश्च  सर्वश्च तन्तु  देवा  अमी  नव ॥ ॐकार: प्रथमे तन्तौ द्वितीयेSग्निस्तथैव च। तृतीये    नागदैवत्यं   चतुर्थे   सोम   देवता ॥ पञ्चमे   पितृदैवत्यं   षष्ठे   चैव  प्रजापति:। सप्तमे    मारुतश्चैव   अष्टमे   सूर्य   एव  च॥ सर्वे    देवास्तु   नवमे   इत्येतास्तन्तुदेवता:।

आधुनिक काल में होम(यज्ञ) करने की मुख्य तीन विधियां

आधुनिक समय में हमारे वैदिक धर्म में होम (हवन) करने की तीन पद्धतियां प्रचलित है: 1. कुशकण्डिका विधि (पारस्कर गृह्य सूत्र एवं  शतपथ ब्राह्मण में  वर्णित) 2. अग्निस्थापना विधि (नेपाली होम विधि) 3. हवन पद्धति (श्री वैष्णव सम्प्रदाय विधि) 1. सनातन वैदिक धर्म में श्रौत-स्मार्त हवन करने के लिये सबसे ज्यादा प्रचलित एवं पुरानी विधि '' कुशकण्डिका विधि ''  है। सम्पूर्ण भारत देश में एक दिन के सामान्य होम का तथा गर्भाधान आदि 16 संस्कार स्मार्त यज्ञों का सम्पादन  पारस्कर गृह्यसूत्र में वर्णित विधि एवं कुशकण्डिका विधि से किया जाता है। वैदिक कर्मकाण्ड के सबसे प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थ '' पारस्कर गृह्य सूत्र '' में कुशकण्डिका विधि तथा गर्भाधान,  नामकरण आदि 16 स्मार्त संस्कार यज्ञों का सम्पादन  तथा '' शतपथ ब्राह्मण '' में अधिक दिनों-महीनों तक चलने वाले विशाल श्रौत यज्ञों-महायज्ञों को सम्पादन करने की विधि का विस्तार से वर्णन है। सनातन वैदिक धर्म में भगवान गणेशजी की स्थापना- अग्रपूजा और ईशान कोण में रूद्र कलश पर अहंकार के अधिष्ठाता भगवान शिवजी की स्थापना

वैदिक कर्मकाण्ड सम्बन्धी सूत्र ग्रन्थ के नाम

वैदिक कर्मकाण्ड में सूत्र ग्रन्थ 4 प्रकार के हैं: 1. कल्प सूत्र 2. गृह्य सूत्र 3. धर्म सूत्र 4. शुल्ब सूत्र