जगद्गुरु भगवत्पाद आदि शंकराचार्य(अद्वैत वेदान्त दर्शन के प्रतिपादक)

ईसवी सन से ५०७ वर्ष पूर्व अर्थात आज से 2534 वर्ष (2 हजार पांच सौ 34 साल) पहले भगवान शिव जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के रुप में भारत के केरल क्षेत्र के कलाडि ग्राम में उत्पन्न हुऐ थे । आदि शंकर के पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्याम्बा था। वायुपुराण में , शिव पुराण में शंकराचार्य को शिव का ही अवतार माना गया है । कुल बत्तीस वर्ष की आयु उन्हें प्राप्त थी । जब शंकर 5 वर्ष के बालक थे तब इनका यज्ञोपवीत संस्कार हो गया और ये गुरुकुल में जाकर वेद अध्ययन करने लगे। 6 वर्ष की छोटी आयु में आदि शंकर ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की, शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र के द्वारा माता लक्ष्मी कॊ प्रसन्न किया। कनक का अर्थ है ''स्वर्ण '' माता लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर स्वर्ण के आँवले की वर्षा की इस प्रकार  एक गरीब ब्राह्मण की निर्धनता दूर की। एक ज्योतिषी ने बालक शंकर की जन्मकुण्डली देख कर बताया की शंकर की कुण्डली में 8 वर्ष, 16 वर्ष और 32 वर्ष की आयु में ये 3 मृत्युयोग हैं। जब बालक शंकर की आठ वर्ष की आयु पूर्ण हुई तो नदी में स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने बालक शंकर का पैर पकड़ लिया तब माता आर्याम्बा ने पुत्र शंकर को आतुर संन्यास की आज्ञा दी।  नदी के अंदर ही आठ वर्ष की आयु में बालक शंकर ने संन्यास लिया तब उस आतुर संन्यास के पुण्य प्रभाव से आदि शंकर का आठ वर्ष की आयु का प्रथम मृत्यु योग नष्ट हो गया और मगरमच्छ ने उनको छोड़ दिया। बालक शंकर मुक्त हो गये और माता आर्याम्बा से विदा लिया। बालक शंकर ने गोविंद पाद योगी कॊ अपना गुरु बनाया और गुरु गोविंद पाद ने बालक शंकर कॊ अपना शिष्य बनाया और 8 अंगो से युक्त अष्टांग हठयोग की दीक्षा दी 1 वर्ष के अंदर 9 वर्ष की आयु में शंकराचार्य ने अष्टांग हठयोग में पूर्ण सिद्धि प्राप्त की। फ़िर दूसरे वर्ष गुरु गोविंद पाद ने बालक शंकर कॊ 16 अंगों से एवम ज्ञान की सात भूमिकाओं से युक्त सभी योगों का राजा राजयोग की दीक्षा देनी प्रारम्भ की। 1 वर्ष के अंदर दस वर्ष की आयु में बालक शंकर ने 16 अंगों एवम ज्ञान की सात भूमिकाओं वाले राजयोग में पूर्ण सिद्धि प्राप्त की। फ़िर तीसरे वर्ष गुरु गोविंद पाद ने बालक शंकर कॊ ज्ञानयोग की शिक्षा देनी प्रारंभ की। 1 वर्ष के अंदर 11 वर्ष की आयु में बालक शंकर ने ज्ञानयोग में पूर्ण सिद्धि प्राप्त की और निर्विकल्प समाधि कॊ सिद्ध करके निराकार निर्विकार निर्गुण परब्रह्म का साक्षात्कार किया। शंकर अब पूर्ण ब्रह्मज्ञानी हो गये और आत्मा परमात्मा के, ब्रह्म जीव के एकत्व का अनुभव किया। फिर चौथे वर्ष गुरु गोविंदपाद ने शिष्य शंकर को गुरु परम्परा से प्राप्त महर्षि बादरायण वेदव्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र की शिक्षा दी और शिष्य शंकराचार्य को आदेश दिया की तुम ब्रह्मसूत्र(वेदांत दर्शन) और उपनिषद एवम गीता पर भाष्य लिखो। अब शंकराचार्य की आयु मात्र 12 वर्ष की थी। गुरु गोविंदपाद ने अपने समाधियोग के द्वारा अपने शरीर का त्याग किया और ब्रह्मस्वरूप में लीन हो गये तब शंकराचार्य ने गुरु गोविंदपाद की आज्ञा मानकर हिमालय पर्वत पर बदरिकाश्रम क्षेत्र में गये और 4 वर्ष के अंदर व्यास जी द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र जिसको वेदांत दर्शन भी कहते हैं उस ब्रह्मसूत्र पर शारीरक भाष्य लिखा, उन्होंने ईश , केन , कठ इत्यादि 11 उपनिषदों पर भाष्य लिखा। श्रीमदभगवदगीता पर भाष्य लिखा। इस प्रकार 16 वर्ष की आयु तक बदरिकाश्रम क्षेत्र में आदि शंकराचार्य प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिख चुके थे।बदरिकाश्रम क्षेत्र में माणा गाँव में सरस्वती नदी के किनारे व्यास गुफा है जहाँ आज से 5200 वर्ष पूर्व(5 हजार 200 साल पहले) श्री कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेदव्यास ने  चार वेदों का विस्तार, विभाजन और लिपिबद्ध किया था तथा 18 महापुराण, महाभारत और ब्रह्मसूत्र(ब्रह्ममीमांसा) की रचना की थी। बदरी क्षेत्र में निवास करने के कारण महर्षि वेदव्यास जी को ''बादरायण'' कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास जी भगवान विष्णु के अवतार हैं और चिरायु अमर हैं। अभी भी व्यासजी  अमर हैं। जब आदि शंकर 16 वर्ष के हो गये तब बदरीनाथ क्षेत्र में महर्षि बादरायण वेदव्यास जी एक सामान्य ब्राह्मण का रूप लेकर आदि शंकराचार्य की परीक्षा लेने आये। महर्षि वेदव्यास जी यह जानना चाहते थे कि मेरे द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र पर शंकराचार्य ने जो भाष्य लिखा है वो कितना सही अर्थ में लिखा हुआ है इसीलिए सामान्य ब्राह्मण के रूप में व्यासजी ने ब्रह्मसूत्र के तृतीय पाद के तृतीय अध्याय के प्रथम सूत्र पर आदि शंकराचार्य से प्रश्न किया और इस एक  ही  सूत्र पर ब्राह्मण रूपी व्यास जी एवम आदि शंकराचार्य का 8 दिनो तक शास्त्रार्थ हुआ। तब आदि शंकर और उनके शिष्यों को अनुभव हुआ कि ये कोई साधारण ब्राह्मण नही बल्कि स्वयं महर्षि बादरायण वेदव्यास जी हैं और परीक्षा लेने के लिये आये हुए हैं तब आदि शंकर ने अपने असली स्वरूप में प्रकट होकर दर्शन देने की प्रार्थना की तब महर्षि व्यासजी ने आदि शंकराचार्य को दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर लिखे शारीरक शांकर भाष्य को आद्योपांत देखा। तब महर्षि व्यास जी ने शारीरक भाष्य को पूर्ण मान्यता दी। शंकराचार्य की 16 वर्ष की आयु में मृत्यु योग था। आदि शंकर समाधियोग के द्वारा शरीर त्याग करना चाहते थे परंतु महर्षि व्यास जी ने शंकराचार्य की मृत्युयोग को नष्ट करके 16 वर्ष की आयु और बढ़ा दी। महर्षि वेदव्यास जी ने आदि शंकराचार्य को आदेश दिया कि ''अब तुम 17 वर्ष की आयु से 32 वर्ष की आयु तक दिग्विजय करो, सनातन वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना करो, अद्वैत वेदांत का प्रचार करो, नास्तिक मत का खण्डन करो और आस्तिक मत की  स्थापना करो''॥ तब आदि शंकराचार्य ने दिग्विजय करना प्रारम्भ किया। बहुत से प्रकरण ग्रन्थों की संरचना की । प्रपञ्च सार नामक ग्रन्थ तन्त्र की दृष्टि से उन्होंने लिखा। आदि शंकराचार्य श्री विद्या के उच्च कोटि के उपासक हुए। आदि शंकराचार्य ने श्री विद्या का सर्वोत्तम तांत्रिक ग्रंथ सौन्दर्य लहरी और आनंद लहरी की रचना की और श्री विद्या में पूर्ण सिद्धि प्राप्त की॥ आदि शंकर ने अपने चार शिष्यों को श्री विद्या में दीक्षित किया। आत्म बोध, तत्व बोध, उपदेश साहस्री, पन्चीकरण, अपरोक्षानुभूति आदि वेदान्त ग्रंथों की रचना की। सनातन साकार देवी देवताओं की उन्होंने स्तुति भी लिखी। शिव मानस पूजा, परा पूजा, अन्नपूर्णा स्तोत्र चर्पट पंजरिका और द्वादश पंजरिका(भज गोविंदम), निर्वाण षटकम जैसे स्तोत्रों की रचना की। कालक्रम से विकृत ज्ञान-विज्ञान को उन्होंने परंपरा प्राप्त अदभुत मेधा शक्ति के बल पर विशुद्ध किया औेर कालक्रम से विलुप्त ज्ञान विज्ञान को प्रकट किया । उस समय बौद्ध , जैन , कापालिक और विविध द्वैतवादियों का बहुत ही प्रभाव था। बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि नास्तिक मतवादियों को परास्त किया और नास्तिक मत का खण्डन किया। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने बौद्ध दार्शनिक आचार्य नागार्जुन के शून्यवाद का खण्डन किया और अपने अद्वैत सिद्धांत को स्थापित किया। सनातन वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की। वेदों के परम तात्पर्य को उन्होंने युक्ति और अनुभूति के बल पर ख्यापित करके वेदों के प्रति और और वेदार्थ के प्रति विद्वान मनीषियों को आस्थान्वित किय‍ा । मूर्तिभंजकों के शासनकाल में बद्रीनाथ का दर्शन सुलभ नहीं था । भगवतपाद शिवावतार शंकराचार्य महाभाग ने ही नारदकुण्ड में सन्निहित बद्रीनाथ को प्राप्तकर अपने चिन्मय करकमलों से पुन: प्रतिष्ठित किया , पुरुषोत्तमक्षेत्र पुरी में मूर्तिभंजकों के शासनकाल में अदृष्टिगोचर दारुब्रह्म श्रीजगन्नाथादि को अपने चिन्मय करकमलों से उन्होंने प्रतिष्ठित किया । द्वारका पुरी में भी मूर्तिभंजकों के शासनकाल में अदृष्टिगोचर भगवान द्वारकाधीश को उन्होंने अपने चिन्मय करकमलों से प्रतिष्ठित किया । इसी प्रकार पुष्कर में ब्रह्माजी के अर्चाविग्रह का भी दर्शन सुलभ नहीं था , उन्होंने अपने चिन्मय करकमलों से ब्रह्माजी को पुन:प्रतिष्ठित किया । नेपाल में पशुपतिनाथ किसी और रुप में पूजित हो रहे थे , वैदिक विधा से पुन: शिवलिंग के रुप में ख्यापित और पूजित प्रतिष्ठित किया , साथ ही साथ सनातन वर्णाश्रमम व्यवस्था को पूर्ण रुप से विकसित किया । उस समय के मण्डन मिश्र इत्यादि महानुभावों को शास्त्रार्थ में प्रमुदित कर जीतकर उन्होंने उन्हें सन्यास की दिक्षा दी । संन्यास लेने के बाद मंडन मिश्र का नाम ''सुरेश्वराचार्य'' पड़ा। योगशिखोपनिषद में अपने शरीर में सात चक्रों के अंतर्गत चार आम्नाय पीठ का वर्णन है उसे आदिदैविक धरातल पर भारत में उन्होंने ख्यापित किया । पूर्व दिशा में पुरुषोत्तमक्षेत्र पुरी में ऋग्वेद से सम्बद्ध पूर्वाम्नाय गोवर्धनमठ की स्थापना उन्होंने पच्चीस सौ एक वर्ष पूर्व की । श्री रामेश्वरम से संलग्न और सम्बद्ध दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी में उन्होंने एक पीठ की  स्थापना की जो यजुर्वेद से सम्बद्ध है , पश्चिम दिशा में द्वारका पुरी में उन्होंने सामवेद से सम्बद्ध एक पीठ की स्थापना की । उत्तर दिशा में बद्रीवन की सीमा में बद्रिनाथ के क्षेत्र में ज्योर्तिमठ की स्थापना की जो अथर्ववेद से सम्बद्ध है । एक-एक वेद से सम्बद्ध एक-एक पीठ को यह दायित्व दिया की उपवेदादि जो वैदिक वांगमय हैं और उनसे सम्बद्ध जितनी कलाएें हैं , बत्तीस विद्या चौंसठ कला उज्जीवित रहें इसका दायित्व चारों पीठों को उन्होंने प्रदान किया । सन्यास आश्रम जो श्रौत है उसको परखकर उन्होंने चार पीठों के तो एक-एक आचार्य बनाया ही उन्हें शंकराचार्य का पद प्रदान किया , जगदगुरु शंकराचार्य का पद । जगद्गुरु भगवत्पाद आदि शंकराचार्य के चार शिष्य थे : 1. पद्मपादाचार्य 2. सुरेश्वराचार्य 3.हस्तामलकाचार्य 4. त्रोटकाचार्य। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के समाधियोग के द्वारा शरीर त्यागने के बाद यही चार शिष्य चार शंकराचार्य हुए। सत्तर श्लोंकों में उन्होंने चारों मठों के संचालन का संविधान मठाम्नाय सेतु मठाम्नाय महानुशासनम के रुप में व्यक्त किया । कुल सत्तर श्लोक हैं जिनके माध्यम से चारों मठों का पीठों का संचालन होता है । एक एक मठ से सम्बद्ध एक एक देवी , एक एक क्षेत्र , एक एक गोत्र उन्होंने ख्यापित किया , जैसे राजधानी ही राष्ट्र का क्षेत्रफल नहीं मान्य है , इसी प्रकार ये जो चार धार्मिक ,आध्यात्मिक राजधानीयां उन्होंने बनाई ख्यापित की उनके साथ पूरे भूमण्डल को जोड़ा । अंग्रेजों ने भगवान शंकराचार्य का जो काल ख्यापित किया है वो उनकी कूटनीति का परिणाम है । सचमुच में जिस समय भगवतपाद शंकराचार्य महाभाग का आविर्भाव हुआ उस समय ना विश्व में ना मोहम्मद साहब हुऐ थे ना ईसा मसीह ना उनके अनुयायी थे कोई । भगवतपाद शंकराचार्य महाभाग ने युधिष्ठिर जी की परंपरा में उत्पन्न सुधन्वा जो की बौद्धों के संसर्ग में आकर बौद्ध सम्राट हो गये थे , वैदिक धर्म के पतन , उच्छेद में अपनी शक्ति का उपयोग कर रहे थे , कुमारिल भट्ट के सहित शंकराचार्य महाभाग ने उनके हृदय और मस्तिष्क का शोधन कर सनातन वैदिकार्य सम्राट के रुप में उन्हें ख्यापित किया । और चारों पीठों की मर्यादा सुरक्षित रहे इसका भी दायित्व प्रदान किया । सुधन्वा जी सार्वभौम पृथ्वी के सम्राट के रुप में उदघोषित किये गये । साथ ही साथ यह भी समझने की आवश्यकता है शंकराचार्य जी ने सन्यासीयों के दस प्रभेद ख्यापित किया । गोवर्धनमठ पुरीपीठ से सम्बद्ध वन और अरण्य दो प्रकार के सन्यासीयों को यह दायित्व दिया की वन औेर अरण्य सुरक्षित रहें , वनवासी और अरण्यवासी सुरक्षित रहें । विधर्मियों की दाल ना गले । महाभारत में वनपर्व के अंतर्गत अरण्य पर्व है । छोटे वन का नाम अरण्य होता है बृहद अरण्य ना नाम वन होता है । पर्यावरण की दृष्टि से शंकराचार्य जी ने वन अरण्य को बहुत महत्व दिया क्योंकि आप जानते होंगें जो सात द्विपों वाली पृथ्वी है , द्विपों का जो विभाग और नामकरण है , वृक्ष , वनस्पति के नाम पर , स्थावर प्राणी के नाम पर । जम्बूद्वीप , कुशद्विप इत्यादि , कुश जानते ही हैं और जामुन का फल , इसी प्रकार से पर्वत के नाम पर क्रौंच द्वीप जैसे कहा गया , और सागर में क्षीर सागर भी है और क्षारसिन्धु भी है , तो जल को लेकर,  पर्वत को लेकर और वृक्ष वन को लेकर द्विपों का विभाग पहले किया गया था  । इसी दृष्टि से भगवतपाद शंकराचार्य महाभाग ने वन और अरण्य तथा वनवासी और अरण्यवासियों को सुरक्षित रखने कि भावना से औेर विधर्मियों की दाल वन में अरण्य मे ना गले , इस भावना से वन अरण्य नामा सन्यासीयों को ख्यापित किया । शिक्षण संस्थान की दृष्टी से सरस्वती और भारती , दो दो सन्यासीयों को ख्यापित किया । उच्च शिक्षण संस्थान की दृष्टि से सरस्वती नामा सन्यासी , मध्यम आवर संस्थान की दृष्टि से भारती नामा सन्यासी को उन्होंने ख्यापित किया ताकि शिक्षण संस्थानों के माध्यम से दिशाहीनता प्राप्त ना हो । नीति आध्यात्म विरुद्ध शिक्षा पद्धति क्रियान्वित ना हो । अयोध्या, मथुरादि जो हमारी पुरीयां हैं उन पुरीयों को सुव्यवस्थित रखने की भावना से पुरीनामा सन्यासी को  शंकराचार्य जी ने ख्यापित किया । तीर्थ औेर आश्रम हमारे दिशाहीन ना हों इस भावना से द्वारका पीठ से सम्बद्ध तीर्थ और आश्रम नामा सन्यासीयों को उन्होंने ख्यापित किया । सागर , समुद्र , पर्वत और गिरी । बृहद गिरी का नाम पर्वत , छोटे पर्वत का नाम गिरी होत‍ा है मत्स्यपुराण के अनुसार । पर्वत ,  गिरी , सागर नामा सन्यासियों को शंकराचार्य जी ने उदभासित किया । कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान के आतंकवादी सागर के माध्यम से मुंबई में घुसे थे । भगवान शंकराचार्य की शिक्षा क्रियान्वित होती तो हमारे सागर सुरक्षित रहते । सागर के माध्यम से किसी भी अराजक तत्व,  विधर्मियों के प्रवेश का मार्ग सर्वथा अविरुद्ध रहता और शंकराचार्य जी ने यह भी कहा " यथा दैवे तथा गुरो " श्वेताश्वतरोपनिषद की इस पक्तिं को उद्धृत करके उन्होंने बताया की " मेरी गद्दी पर जो विधिवत प्रतिष्ठित आचार्य होंगें वो मेरे ही स्वरुप होंगें " । और शिवपुर‍ाण के अनुसार यह भी बताया गया की भगवान चार युगों में चार गुरु का रुप धारण करते हैं । एक प्रक्रिया यह है की कृतयुग सतयुग में ब्रह्माजी गुरु होते हैं सार्वभौम , त्रेता में वशिष्ठ जी होते हैं । द्वापर में व्यास जी होते हैं , कलियुग में शंकराचार्य गुरु होते हैं । दूसरी परंपरा यह है प्रक्रिया , भगवान शिव के अवतार दक्षिणामूर्ति कृतयुग या सतयुग में गुरु होते हैं , दत्तात्रेय महाभाग त्रेता में गुरु होते हैं , वेदव्यास जी द्वापर में गुरु होते हैं , कल्कियुग के अंतिमचरण तक भगवान शंकराचार्य उसकी और उनके द्वारा ख्यापित पीठों के आचार्य गुरु होते हैं । जगद्गुरु भगवत्पाद आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में  केदारनाथ क्षेत्र में निर्विकल्प समाधि योग के द्वारा अपने शरीर का त्याग किया और अपने ब्रह्मस्वरूप में लीन हो गये॥

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