विवाह अग्नि परिग्रह संस्कार

स्वायम्भुव मनु ने मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में १५ वां संस्कार  विवाह अग्निपरिग्रह-संस्कार का वर्णन किया है:

वैवाहिकेSग्नौ  कुर्वीत  गृह्यं    कर्म  यथाविधि।
पञ्चयज्ञविधानं  च   पक्तिं   चान्वाहिकीं  गृही॥
वैश्वदेवस्य   सिद्धस्य    गृह्येSग्नौ विधिपूर्वकम्।
आभ्य: कुर्याद् देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥
अर्थात् विवाह-संस्कार में लाजाहोम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं वह अग्नि योजक, आवसथ्याग्नि, गृह्याग्नि, स्मार्ताग्नि, विवाहाग्नि तथा औपासनाग्नि नाम से कही जाती है। विवाह के बाद जब वर-वधू (बेहुला-बेहुली) अपने घर आने लगते हैं तब विवाह-मण्डप में स्थापित विवाह अग्नि को अपने घर में लाकर यथाविधि स्थापित करके उस अग्नि में प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा अनुसार प्रात: काल-सायं काल होम   करने का विधान है। गृहस्थ के लिये पञ्चमहायज्ञ आदि पाकयज्ञ-सम्बन्धी जो नित्य कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं, अत: प्रत्येक गृहस्थी को चाहिये कि वह विवाह के समय लायी गयी योजक अग्नि तथा घर में प्रतिष्ठित अग्नि में विधिपूर्वक नित्य होम (प्रात:-सायं हवन आदि कर्म), पञ्चमहायज्ञ, बलिवैश्वदेव (पञ्चबलि) और प्रतिदिन भोजन तैयार करें। विवाह के बाद गृहस्थ के अपने घर में लायी गयी यह विवाह अग्नि कभी बुझनी नहीं चाहिये, अत: इस विवाह अग्नि की प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जाती है॥

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