बौधायन वृत्ति एवम् रामानुज कृत श्री भाष्य
ब्रह्मसूत्र पर आचार्य बौधायन ने एक वृत्ति ग्रंथ लिखा जो बौधायन वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्री रामानुज स्वामी यामुनाचार्य के शिष्य थे। यामुन मुनि को आलवन्दार के नाम से भी जाना जाता है। आलवन्दार का अर्थ है ' ' शासक ' ' । 1000 वर्ष पूर्व स्वामी रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तमिल नाडु राज्य के महाभूतपुरी(पेरुम्बुदुर) में हुआ था। बौधायन वृत्ति का सहारा लेकर स्वामी रामानुज ने ब्रह्मसूत्र पर एक भाष्य लिखा जो श्री भाष्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगद्गुरु श्रीरामानुजाचार्य ने भगवती माता शारदा देवी को ' ' कप्यासं पुण्डरीकाक्षं ' ' मंत्र की व्याख्या सुनाई इस व्याख्या को सुनकर माता शारदा देवी ने स्वामी रामानुज के श्रीभाष्य को मान्यता प्रदान की और रामानुज को भाष्यकार के नाम से सम्बोधित किया॥ भाष्यकार जगद्गुरु स्वामी रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत दर्शन की व्याख्या की, रामानुज ने अद्वैतवाद सुन्दर शब्दों में कटु आलोचना की, ब्रह्म का अंश होने के कारण प्रकृति और जगत् को सत्य माना है। वेदान्त दर्शन, भगवद्गीता पर रामानुज भाष्य प्रसिद्ध है॥ अद्वैतवाद के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी हुए आचार्य रामानुज। रामानुज का विशिष्ट अद्वैत दर्शन के अनुसार मुख्य इष्ट देव हैं लक्ष्मीनारायण॥ विष्णु का अर्थ है ' ' व्यापक ' ' । जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्याप्त हैं वो विष्णु तत्त्व है॥ नारायण का अर्थ है ' ' नारं अयनं यस्य स:' ' नर के अंश से प्रकट होने के कारण जल का नाम नार हुआ। नार का अर्थ है ' ' जल ' ' । जल ही जिसका घर(निवास स्थान) है वो नारायण हैं । विष्णु भी 3 प्रकार के हैं: 1. कारणोदकशायी महाविष्णु 2. गर्भोदकशायी विष्णु 3. क्षीरोदकशायी विष्णु ॥ कारण जल को ही विरजा नदी कहा गया है, जब भगवान् नारायण विरजा नदी(कारण जल) में शयन करते हैं तब उनको कारणोदकशायी महाविष्णु कहा जाता है और महाविष्णु के असंख्य रोमकूपों से असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न होते हैं॥ जब भगवान् प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत अलग अलग गर्भ जल में शयन करके अपने नाभिकमल से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को उत्पन्न करते हैं तब वे गर्भोदकशायी विष्णु कहलाते हैं। तथा क्षीरसागर में शयन करने वाले पालनकर्त्ता अन्तर्यामी भगवान् क्षीरोदकशायी विष्णु कहलाते हैं॥ कारणोदकशायी महाविष्णु कारण ब्रह्म हैं एवम् द्रष्टा व अकर्ता हैं और गर्भोदकशायी विष्णु कार्यब्रह्म ईश्वर हैं कर्त्ता हैं। भगवान् की पांच स्वरूप में उपासना की जाती है :1.पर 2. व्यूह 3. विभव 4. अन्तर्यामी 5. अर्चावतार । परब्रह्म के रूप में परा प्रकृति लक्ष्मी जी एवम् परम् पुरुष नारायण की उपासना की जाती है॥ व्यूह उपासना के अन्तर्गत भगवान् के चतुर्व्यूह स्वरूप अन्तःकरण चतुष्टय मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध,) की उपासना की जाती है। विभव उपासना के अन्तर्गत भगवान के राम कृष्ण आदि 10 अवतार या 24 अवतार की उपासना की जाती है। भगवान् का अन्तर्यामी रूप में सर्वत्र सभी जीवमात्र में ब्रह्मदर्शन करना एवम् सर्वत्र भेद रहित होकर ब्रह्म का अनुभव ही सबसे उत्तम उपासना है॥ अर्चा विग्रह के रूप में भगवान् का अवतार : शालिग्राम के रूप में, मूर्ति में अपने इष्ट का दर्शन करना सबसे निम्न स्तर की उपासना है। मूर्ति पूजा से ही मनुष्य को अपनी साधना प्रारम्भ करनी चाहिये और अन्त में परब्रह्म को प्राप्त करना ही जीव का परम लक्ष्य है और भगवान् की सेवा ही भक्त का वास्तविक लक्ष्य एवं परम् कर्तव्य है॥
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