12 Types of Kalsarpa Dosh in Janmakundali(Birth Chart)

कालसर्प दोष के 12 प्रकार : ज्योतिषकर्त्ता पण्डित शरद चन्द्र शास्त्री (ज्योतिष विशारद) भारतीय ज्योतिष विज्ञान परिषद(Indian Council of Astrological Sciences) भारत(India) का मोबाइल नंबर: 0091- 9811792963 (Whatsapp number: 0091-9811792963                      नेपाल का  मोबाइल नंबर : 00977-9819773627

अनन्त कालसर्पयोग – लग्न कुण्डली के प्रथम भाव में राहु और सप्तम भाव में केतु हो तथा समस्त ग्रह इन दोनों के मध्य स्थित छठे भाव तक कहीं भी स्थित हों तब यह योग बनता है। लग्न अथवा सप्तम भाव में भी कोई ग्रह राहु अथवा केतु के साथ स्थित हो तब भी इसको इस दोष की श्रेणी में ही रखा जाता है।

कुलिक कालसर्पदोष – जन्म पत्रिका में दूसरे और आठवें भाव में क्रमशः राह और केतु हों और अन्य सब ग्रह इनके मध्य स्थित हो तब यह दोष बनता है।

वासुकि कालसर्पयोग – तीसरे और नौवे भाव में राहु-केतु के मध्य स्थित ग्रह इस योग का कारण बनते हैं। इस दुर्योग से व्यक्ति के भाई-बहन कष्ट भोगते हैं, व्यक्ति अल्पायु होता है अथवा अपने इष्ट-मित्रों के द्वारा भी अनेकों कष्ट उठाता है।

शंखपाल कालसर्पयोग – चतुर्थ भाव और दशम भाव में क्रमशः राहु और केतु के मध्य स्थित अन्य समस्त ग्रह इस दोष का कारण बनते हैं। मॉ को कष्ट, पेट अथवा किडनी सम्बन्धी व्याधियॉ, अपने परिजनों की कृपा पर आश्रित ऐसे व्यक्ति नकारात्मक विचारों से त्रस्त रहते हैं और तदनुसार आत्महत्या करने जैसी मनोदशा से सदैव पीड़ित होते हैं। इस दोष का सकारात्मक पक्ष भी नकारात्मक ही रहता है क्योंकि अन्य ग्रहों की शुभ स्थिति के बाद भी पूर्ण सुख से व्यक्ति वंचित रहते हैं। हॉ, अपने जन्म स्थान से दूर रहने पर ऐसे व्यक्तियों का भाग्योदय भी हो जाता है।

पद्म कालसर्पयोग – पांचवे और एकादश भाव में राहु और केतु के मध्य स्थित अन्य समस्त ग्रह इस योग को जन्म देते हैं। ऐसे जातक संतान सुख से वंचित रहते हैं। पेट की व्याधियॉ इनको सताती हैं तथा अनुचित और अनावश्यक कायरें में यह धन व्यर्थ कर देते हैं।

महापद्म कालसर्पयोग – जन्म पत्रिका में छठे और द्वादश भाव में राहु और केतु के मध्य स्थित ग्रह इस योग का कारण बनते हैं।

तक्षक कालसर्पयोग – सप्तम और प्रथम भाव में राहु और केतु समस्त ग्रह इस योग को जन्म देते हैं। ऐसे व्यक्ति वैवाहिक सुख से वंचित रहते हैं विवाह होने में इनको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अनुकूल स्थितियों में ऐसे व्यक्ति अर्न्तजातीय विवाह करते हैं और जीवन का पूरा आनन्द भोगते हैं।

कर्कोटक कालसर्पयोग – अष्टम और द्वितीय भाव में राहु और केतु के मध्य स्थित अन्य ग्रह इस योग को जन्म देते हैं। यह योग अल्पायु का कारण बनता है अथवा व्यक्ति रोग और शोक में जीवन व्यतीत करता है। परन्तु अन्य अनुकूल ग्रह स्थितियों में व्यक्ति पूर्ण स्वास्थ्य लाभ भोगता है।

शंखनाद कालसर्पयोग – नवम भाव और तृतीय भाव में क्रमशः राहु और केतु के मध्य जब अन्य सब ग्रह जन्म पत्रिका में स्थित होते हैं तब इस योग का कारण बनते हैं। सारे जीवन व्यक्ति कर्मशील बना रहे, फिर भी इस योग के दुष्प्रभाव से भाग्यशाली नहीं कहलाता। परन्तु इसके विपरीत अनुकूल ग्रह स्थितियों के साथ जीवन भर भाग्य साथ देता है।

पातक कालसर्पयोग – दशम भाव और चतुर्थ भाव के मध्य स्थित अन्य ग्रह इस योग को जन्म देते हैं। ऐसे व्यक्ति भी आय और व्यय में कभी भी सन्तुलन नहीं बना पाता। कर्जे से वह प्रायः पीड़ित और पिता के सुख से वंचित रहता है। परन्तु इसके विपरीत ग्रहों की शुभ स्थितियॉ इस योग में राजयोग और पैतृक धन-सम्पत्ति का पूर्ण सुख भोगता है।                                                       विषाक्त कालसर्पयोग – एकादश और पंचम भाव में राहु तथा केतु के मध्य स्थित ग्रह हों तब यह योग बनता है। इस योग के दुष्परिणाम स्वरुप सुख में सदैव कमी बनी रहती है। कर्ज के अशुभ फल उन्हें मिलते हैं और भाई-बहनों के मध्य व्यर्थ का मन-मुटाव बना रहता है। अनुकूल योग व्यक्ति को ऐश्वर्यमय जीवन देता है।

शेषनाग कालसर्पयोग – राहु द्वादश और केतु षष्टम भाव में हो और समस्त ग्रह इन दोनों के मध्य पत्रिक में स्थित हो जाएं तब यह योग बनता है। जीवन भर ऐसे व्यक्ति अर्थाभाव में रहते हैं। अनेक स्थानों पर भटकने के बाद भी उनकी जीवन कष्टों में बीतता है। परन्तु अनुकूल योग में जन्म लेने वाले व्यक्ति अपने घर से सुदूर स्थानों में जीवन के सब सुख भोगते हैं।

कालसर्पदोष की सर्वाधिक कष्टकारी स्थिति

मान्यता है कि जन्म कुण्डली में राहु के साथ सूर्य स्थित हो तो सूर्य ग्रहण योग बन जाता है। राहु के साथ गुरु की युति हो तो गुरु चाण्डाल योग तथा राहु के साथ यदि मंगल की युति हो तो अंगारक योग बन जाता है। इसके अतिरिक्त राहु के साथ शुक्र अथवा बुध की युति भी इस योग को अत्यधिक पीड़ादायक बना देती है। काल सर्पयोग का दुष्प्रभाव उसके साथ-साथ अथवा पूर्व में प्रकट हुए कुछ लक्षणों से चरितार्थ होने लगता है जैसे सोते-जागते एक अज्ञात भय से भयभीत रहना। शरीर भारी-भारी रहना तथा आलस्य से सदा मन उच्चाट रहना। स्वप्न में सांप दिखाई देना, हवा में अपने को उड़ता हुआ देखना, उंचाई से गिरना॥

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